ना रोटी ना कपड़ा ना छत
ये संसार हमारा है
रोटी ढूंढ रहे कूड़े में
जीवन यूँ ही गुजारा है
आस के गलियारे में फैला
दूर दूर अँधियारा है
सूनी आँखे सूने सपने
भूखा तन बेचारा है
टूटी फूटी एक झोपड़ी
दीपक का उजियारा है
सर्द ठिठुरती रातो को
जलते अलाव का सहारा है
जिन्दा थे तब भी दुत्कारा
मर कर भी दुत्कारा है
हम समाज पर एक बोझ
ये सभ्य समाज तुम्हारा है
शालिनी शर्मा
Comments